तप

पुराणों, जैन ग्रंथों और अन्य प्राचीन साहित्य में तप की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गई है। कुछ साधु कई-कई दिन धूप में निरंतर खड़े रहते हैं और दावा करते हैं कि वे तपस्या कर रहे हैं। मुनियों का संथारा भी तपस्या का ही एक रूप है।
भगवान श्रीकृष्ण तपस्या की व्याख्या करते हुए कहते हैं, ‘देवताओं, विद्वानों, ब्राह्मणों, गुरुजनों और पवित्र आत्माओं की सेवा-पूजा, प्रकृति के नियमों से सामंजस्य, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर के तप हैं। सत्यवादी, कल्याणकारी वाणी तथा पवित्र मंत्रोच्चार वाक् तप हैं। मधुर स्वभाव, आत्मनियंत्रण और समता भाव मन के तप हैं।’
महर्षि रमण ने कहा था, ‘जिसे अहित करने वाले, निंदा करने वाले पर भी क्रोध नहीं आता, जिसने क्रोध पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है, वह सर्वश्रेष्ठ कोटि का तपस्वी है।’ भगवान बुद्ध का मत था, ‘जिसने इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया, जो हर स्थिति में संतुष्ट रहता है, जो दुख में दुख और सुख में सुख की अनुभूति नहीं करता, वही सच्चा तपस्वी है।’ वराह पुराण में कहा गया है, ‘तपस्या शरीर और मन को परिष्कार करने वाली एक प्रक्रिया है। केवल तपस द्वारा ही हम अपनी बुद्धि, भावनाओं, आसुरी प्रवृत्तियों आदि को संयमित रख सकते हैं।’ साधु संतों ही नहीं, अनेक सद्गृहस्थों में भी ऐसे तपस्वी देखे जाते हैं, जो सत्य, अहिंसा तथा नैतिक मूल्यों का पालन करने के लिए भयंकरतम कष्ट उठाकर भी विचलित नहीं होते। ऐसे दृढ़ व्यक्तियों को पुराणों में ‘तपःपूत’ कहकर वंदना की गई है।

कोई टिप्पणी नहीं:

[ ऐसी वाणी बोलिए ][ BLOG CREATED BY : RJV ] [ ENRICHED BY :adharshila ] [ POWERED BY : BLOGGER ]